उत्तराखंड हाईकोर्ट ने उत्तराखंड विधानसभा सचिवालय के सौ से अधिक कर्मचारियों की बर्खास्तगी के आदेश पर रोक लगा दी है। विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूरी भूषण ने पूर्व प्रमुख सचिव डीके कोटिया की अध्यक्षता में बनाई समिति की सिफारिशों के आधार पर इन कर्मचारियों की बर्खास्तगी का निर्णय लिया था। यह सब तदर्थ कर्मचारी हैं।
बता दे कि बीते दिवस न्यायाधीश न्यायमूर्ति मनोज कुमार तिवारी की एकलपीठ ने इन कर्मचारियों को सुनवाई का मौका नहीं देने पर नाराजगी जताई थी और विधानसभा से इस बिंदु पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा था। बर्खास्तगी आदेश के विरुद्ध 55 से अधिक कर्मचारियों की याचिका दायर की गई थी। याचिकाकर्ता में बबिता भंडारी, भूपेंद्र सिंह बिष्ठ व कुलदीप सिंह व 53 अन्य मुख्य थे।
याचिकाकर्ता के अधिवक्ताओं ने कोर्ट को बताया कि विधानसभा अध्यक्ष ने लोकहित को देखते हुए उनकी सेवाएं समाप्त कर दी, मगर बर्खास्तगी आदेश में उन्हें किस आधार पर किस कारण, किस वजह से हटाया गया, कहीं इसका उल्लेख नहीं किया गया न ही उन्हें सुना गया। जबकि उनके सचिवालय में नियमित कर्मचारियों की भांति कार्य किया है। एक साथ इतने कर्मचारियों को बर्खास्त करना लोकहित नही है। यह आदेश विधि विरुद्ध है। विधानसभा सचिवालय में 396 पदों पर बैकडोर नियुक्तियां 2002 से 2015 के बीच भी हुई है, जिनको नियमित किया जा चुका है।
याचिका में कहा गया है कि 2014 तक हुई तदर्थ रूप से नियुक्त कर्मचारियों को चार वर्ष से कम की सेवा में नियमित नियुक्ति दे दी गई । किन्तु उन्हें 6 वर्ष के बाद भी स्थायी नहीं किया, अब उन्हें हटा दिया गया। पूर्व में भी उनकी नियुक्ति को जनहित याचिका दायर कर चुनौती दी गयी थी, जिसमे कोर्ट ने उनके हित में आदेश दिया था जबकि नियमानुसार छह माह की नियमित सेवा करने के बाद उन्हें नियमित किया जाना था।
उधर, भाकपा माले के महासचिव इंद्रेश मैखुरी ने कहा है कि
विधानसभा के बर्खास्त कर्मचारियों की नियुक्ति पर उच्च न्यायालय से लगी रोक दर्शाती है कि यह कार्यवाही सिर्फ स्टंटबाजी थी. इन कर्मचारियों की नियुक्ति में वैधानिक प्रक्रिया नहीं अपनाई गयी और इन्हें हटाते समय भी किसी वैधानिक प्रक्रिया का अनुपालन किया गया। विडंबना यह है कि इस अवैधानिकता का लाभ नियुक्ति और बर्खास्तगी, दोनों ही बार बैक डोर इंट्री से आये कर्मचारियों को हुआ।
विधानसभा के इन बर्खास्त कर्मचारियों को बच निकलने का यह रास्ता इसलिए दिया गया क्योंकि पूर्व विधानसभा अध्यक्षों के करीबी हैं, उनकी कृपा से विधानसभा में नियुक्ति पाए हुए हैं। अदालती रास्ते के राज्य की सत्ता में बारी बारी बैठने वाले भाजपा-कांग्रेस के चहेतों को अवैधानिक तरीके से बच निकलने का रास्ता भाजपा सरकार द्वारा दिया गया है।
प्रदेश के आम युवाओं के साथ पुनः छल किया गया है. मेहनत से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वालों के मुँह पर यह करारा तमाचा है।
विधानसभा में बैक डोर से नियुक्ति पाए कर्मचारियों को यह बच निकलने का रास्ता इसलिए मिल पाया क्योंकि उनको नियुक्त करने वालों यानि विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल और प्रेम चंद्र अग्रवाल के विरुद्ध कोई कार्यवाही अमल में नहीं लाई गयी. कानूनी रूप से गलत नियुक्ति पाने वाले से गलत नियुक्ति करने वाला अधिक जिम्मेदार है. लेकिन उत्तराखंड सरकार और विधानसभा अध्यक्ष द्वारा जानबूझ कर इस कानूनी पहलू की उपेक्षा की गयी।
भाकपा (माले) द्वारा 19 सितंबर को विधानसभा अध्यक्ष को पत्र लिख कर यह माँग की गयी थी और हम पुनः यह दोहराना चाहते हैं कि विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल और प्रेम चंद्र अग्रवाल के विरुद्ध भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 एवं अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के तहत मुकदमा दर्ज करके उनको गिरफ्तार किया जाए. यह कार्यवाही अमल में लाने के बाद ही बर्खास्त कर्मचारियों की बर्खास्तगी को अदालत में सही ठहराया जा सकेगा, अन्यथा की दशा में तो यह स्पष्ट है कि पुष्कर सिंह धामी सरकार और विधानसभा अध्यक्ष इन कर्मचारियों की बर्खास्तगी के स्टंट पर वाहवाही बटोर कर इन्हें बच निकलने का रास्ता दे रहे हैं.