पार्थसारथि थपलियाल/नई दिल्ली:भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग हुआ है। अल्प का अर्थ है बहुत कम और संख्यक का अर्थ है संख्या वाले। अर्थात कम संख्यावाले। मुख्यतः संविधान के अनुच्छेद 29, व 30 में अल्पसंख्यक शब्द मिलता है। संविधान में अल्पसंख्यक शब्द की परिभाषा स्पष्ट रूप में नही मिलती। अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक शब्द 1905 में बंगाल विभाजन से पहले भारत में धार्मिक आधार पर नही थे। जिस व्यक्ति ने प्रसिद्ध गीत “सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा… वह अल्लामा इक़बाल 1930 में “धार्मिक आधार पर मुसलमानों के लिए अलग देश” का विचारक बना। मुस्लिम लीग के माध्यम से इस विचार को मुहम्मद अली जिन्ना ने मूर्त रूप दिलाया। जिन लोगों ने भारत विभाजन के “द्वि-राष्ट्र सिद्धांत” के अंतर्गत भारत विभाजन व पाकिस्तान अलग देश के पक्ष में मत दिया था, उनमें से अधिकांश पाकिस्तान नही गए। 1951 की जनगणना के अनुसार विभाजन के बाद भारत में 3 करोड़ 54 लाख मुसलमान रह गए। एक अनुमान के अनुसार पिछले 75 वर्षों में मुस्लिम जनसंख्या 30 करोड़ हो गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपनाए गए भारतीय संविधान में धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों के लिए अनुच्छेद 29 व 30 की व्यवस्था की गई।
अल्पसंख्यक कौन है?: संयुक्त राष्ट्र संघ की परिभाषा के अनुसार- ऐसा समुदाय जिसका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से कोई प्रभाव न हो और जिसकी आबादी नगण्य हो उसे अल्पसंख्यक कहा जायेगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 में बताया गया है कि ‘भारत के किसी भी क्षेत्र में या भाग में रहनेवाले नागरिकों को जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है उसे बनाये रखने का अधिकार होगा।’ इसी संविधान के अनुच्छेद 30 में लिखा हुआ है कि धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा, संस्थानों की स्थापनाऔर प्रशासन का अधिकार होगा।
“राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992” के अंतर्गत 23 अक्टूबर 1993 को भारत सरकार ने पांच समुदायों – मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी और बौद्ध समुदाय को अधिसूचना जारी कर अल्पसंख्यक समुदाय की मान्यता दी। वर्ष 2014 में जैन समुदाय को भी इस वर्ग में शामिल किया गया। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में मुसलमान 14.2 प्रतिशत, ईसाई 2.3 प्रतिशत, सिख 1.7 प्रतिशत, बौद्ध 0.7 प्रतिशत, जैन 0.4 प्रतिशत, और पारसी 0.006 प्रतिशत रिकॉर्ड में दर्ज हैं।
मुस्लिम वर्ग की जनसंख्या वर्तमान में 30 करोड़ अनुमानित हैं। 30 करोड़ जनसंख्या नगण्य तो नही कही जानी चाहिए। ये आंकड़े यह दर्शाने के लिए काफी हैं कि समान नागरिक संहिता के दायरे में कौन अल्पसंख्यक कितना लाभ उठा रहा है। इस देश मे “पारसी” लघुतम धार्मिक अल्पसंख्यक है। इनकी जनसंख्या पूरी दुनिया में लगभग एक लाख है। भारत में इनकी संख्या लगभग साठ हजार है। यह समुदाय बहुत सम्पन्न, पढ़ा लिखा, उद्यमी तथा विकसित और शांत समुदाय है। इसी प्रकार जैन समुदाय भी बहुत बड़ा व्यापारिक वर्ग व शांत समुदाय है। इस समुदाय में लोग सर्वाधिक 94 प्रतिशत से अधिक साक्षर हैं। भारत की समृद्धि में इनका बहुत योगदान है। सिख समुदाय की आबादी ढाई से तीन करोड़ है। यह समाज मानव जीवन के हर क्षेत्र में आगे है। सेवा कार्यों और लंगर लगाने में सदैव अग्रणी। इन लोगों से राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा भी मिलती है।
वास्तव में अल्पसंख्यक तो पारसी, जैन, बौद्ध और सिख हैं, जिनकी जनसंख्या बहुत कम है। इस देश के लगभग 30 करोड़ समुदाय से युक्त मुस्लिम, जिन्होंने लगभग 700 वर्षों तक राज किया है वह अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय का सबसे अधिक लाभ उठाने वाला वर्ग है। इस वर्ग कुछ लोग समान नागरिक संहिता का मुखर विरोध कर रहे हैं। विरोध करने की उनकी इच्छा को बढ़ाने में कुछ राजनीतिक दलों और भ्रमित मुस्लिम नेताओं की भूमिका है।
समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में पहले से ही लिखित है। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।
वर्तमान समय में मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदायों के लिए उनकी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार व्यक्तिगत कानून हैं। हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, हिन्दू अधिनियम 1956 से ही शासित होते हैं। धार्मिक समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों के कारण समानता न होने से विवाह, बच्चा गोद लेना, उत्तराधिकार, तलाक/संबंध विच्छेद जैसे मामलों में उपयुक्त समान कानून न होने से न्यायिक अधिकारियों को कठिनाई का सामना करना पड़ता है। तलाक ए हसन, तलाक ए अहसन, तलाक ए बिद्दत आदि से प्रभावित मामलों में विधि द्वारा स्थापित न्यायालय कुछ नही कर सकते है।
शाहबानो केस से लेकर एक बार में तीन तलाक के मामले तक मुस्लिम महिलाओं की मांगें न्याय की गुहार लगाती रही। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार सरकार से कहा है कि विभिन्न समुदायों में अपने अपने कानून होने की बजाय एक समान कानून होना चाहिए। भारत में अब तक गोवा एक ऐसा राज्य है जहां पर नागरिकों के लिए सामान नागरिक संहिता पहले से लागू है। अभी तक भारत सरकार की ओर से प्रस्तावित समान नागरिक विधेयक का प्रारूप जारी नही हुआ है, इसलिए अभी इस विधेयक के प्रस्तावों पर खुल कर चर्चा भी नही हो पाई। समुदाय विशेष, राजनीतिक दल विशेष अपने अपने पक्ष से भ्रम फैलाने के काम में लगे हुए हैं। हिंदुओं के लिए सरकार ने 1956 में कानून बना दिया था। नए संदर्भ में उत्तराखंड राज्य नें पहल की है कि वे जल्दी ही समान नागरिक कानून बनाने जा रहे हैं। इसके लिए गठित समिति ने अपना कार्य पूरा कर लिया है। लगभग 19,000 लोगों ने अपने सुझाव भेजे थे। उनमें से जो मुख्य बातें मीडिया में चर्चा के बिंदु बने वे हैं- विवाह की उम्र में समानता, विवाह का विधिवत पंजीकरण, बहुविवाह पर रोक, जनसंख्या पर नियंत्रण, हलाला और उसी प्रकार की कुरीतियों से महिलाओं के सम्मान की रक्षा, बच्चों की उचित देखरेख संबंधी नियम, बूढ़े बुजुर्गों का सम्मान व भरण पोषण, वसीयत, उत्तराधिकार, बच्चा गोद लेने सम्बन्धी नियम, तलाक संबंधी कानूनी प्रावधान व महिलाओं के भरण पोषण संबंधी कानून, पैतृक संपत्ति पर अधिकार संबंधी प्रावधान, लैंगिक समानता आदि।
हाल ही में प्रधानमंत्री ने जब भोपाल में समान नागरिक कानून पर बात छेड़ी उसके बाद इस विषय पर अनाप सनाप बहसें शुरू हो गई हैं। अधिकतर कट्टरवादी समुदायों में विरोधी सुर सुनाई दे रहें हैं। सभ्य और शिक्षित महिलाएं, अपनी गरिमा, स्वाभिमान और न्यायिक समानता के प्रति बहुत आशावादी हैं। देखना यह है कि समान नागरिक संहिता इन आशाओं को कितना सींच पाएंगी?