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धर्म एवं सनातन धर्म : निरंतर, लगातार, जिसका आदि है न अंत है


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✍️पार्थसारथी थपलियाल

धर्म- सृष्टि का कर्ता ईश्वर है। सारा ब्रह्मांड उस एक परब्रह्म की रचना है और सभी उसी की संताने हैं। कहीं कोई ऐसी जगह या वस्तु नही है जिसमें ईश्वर का वास नही है। ईशावास्योपनिषद में कहा गया है “इशावास्यामिदं सर्वं यदकिंचित जगत्यान्जगत”- ईश्वर जगत में कण कण में विद्यमान है। उसका न आदि है न अंत है। यजुर्वेद में लिखा है -“न तस्य प्रतिमा अस्थि।” अर्थात उसकी कोई प्रतिमा नही है। संसार में ईश्वर के प्रति आस्था के स्वरूप को भी धर्म नाम दिया जाता है। भौतिक पदार्थो, वनस्पतियों, जीव जंतुओं और मनुष्यों में अपने अपने प्राकृतिक गुण होते हैं वे प्राकृतिक गुण ही उन्होंने धारण किए हुए हैं वे उनके निजी गुण धर्म हैं।। धर्म की परिभाषा के तौर पर कहा गया है “धार्यते इति धर्म:। “जो धारण किया जाय वह धर्म है”। कुछ विद्वान कहते हैं धर्म दायित्व है, दायित्वों का निर्वहन किया जाना चाहिए। धारण करने योग्य व्यवहार को ही वह धर्म कहते हैं। संसार को सजीव रखने के लिए प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है कि वह अपने अपने स्तर पर अपने दायित्वों का निर्वाह करे। नैतिक कर्तव्य निर्वहन ही धर्म है।

मनुस्मृति में मनु महाराज ने धर्म के लक्षण बताते हुए कहा है –
धृति क्षमा दमोस्तेयम शौचमिंद्रीय निग्रह।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकम धर्म लक्षणम।।
महर्षि मनु ने कहा है कि “धृति (धैर्य रखना), क्षमा, संयमित रहना, चोरी न करना, हर तरह की स्वच्छता, इंद्रियों पर नियंत्रण, , बुद्धि, विद्या, सत्य बोलना, और क्रोध न करना-धर्म के ये दस लक्षण हैं।” जो कार्य उपरोक्त गुणों से युक्त है वह धर्म है। वैशेषीक दर्शन के आचार्य कणाद कहते हैं- ” यतोभ्युदयनिश्रेय स सिद्धि स धर्म। अर्थात जो व्यवहार इस लोक में उन्नति कारक हो और परलोक में भी कल्याणकारी हो वह धर्म है। पद्म पुराण में कहा गया है-
श्रूयतां धर्म सर्वस्वम श्रुत्वाचेवावधार्यताम
आत्मन प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत।।

अर्थात सब धर्मों की सुनिए सुनकर ह्रदयंगम कर लें। जो कर्म या व्यवहार आप अपने लिए किया जाना पसंद नही करते वैसा दूसरों के साथ भी न करें।

महर्षि दयानंद जी का कथन भी धर्म को इसी क्षेत्र में परिभाषित करता है- सतयुक्त, न्यायोचित, पक्षपात रहित, ईश्वरोक्त वेदज्ञान के अनुकूल कर्म ही धर्म है।
सनातनधर्म- वेद में वर्णित ज्ञान के अनुसार आचरण करना ही वैदिक धर्म है। इसी को सनातन धर्म कहते हैं। सनातन धर्म का कोई प्रवर्तक नही है। सनातन धर्म श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को ग्रहण करता है। श्रेष्ठ जीवन मूल्य श्रुति और स्मृति शास्त्रों में उपलब्ध है। यह मानव अनुकूल आचरण पर आधारित धर्म है। सनातन शब्द का अर्थ है निरंतर, लगातार, जिसका आदि है न अंत है। सनातन परम सत्य है। इसके लिए ऋग्वेद के तीसरे मंडल के 18वें सूक्त के पहले श्लोक में कहा गया है- “यह पथ सनातन है। समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा हुए हैं तथा प्रगति की है। हे मनुष्यों आप अपने उत्पन्न होने की आधाररूपा अपनी माता को विनष्ट न करें”।

इसे वैदिक धर्म, सनातन धर्म और हिन्दू धर्म भी कहते हैं। सनातन धर्म में वेदों में विश्वास रखने वाले को आस्तिक और विश्वास न रखनेवालों को नास्तिक कहा जाता है। वैदिक परंपरा से निकले अन्य पंथ जैसे जैन, बौद्ध, सिख और अन्य पंथ सनातन धर्म में ही समाए हुए हैं।
सनातन धर्म की कुछ अवधारणाएं हैं- ईश्वर प्रणिधान, एको देवा केशवो व शिवो वा।। कर्म आधारित प्रारब्ध, पुनर्जन्म में विश्वास, ईश्वरीय न्याय, पाप पुण्य की अवधारणा।
गोस्वामी तुलसी दास जी ने कहा है :-
दयाधर्म को मूल है पाप मूल अभिमान
तुलसी दया न छोड़िए जबतक घट में प्राण।

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