✍🏿पार्थसारथि थपलियाल
भारत पर्वों और उत्सवों का देश है। यहां सात वार और नौ त्यौहार की कहावत इसीलिए प्रसिद्ध है। यहां रोटी तोड़कर जीवन यापन को जीवन नही माना गया है। सनातन संस्कृति में जीने के तरीके को “पुरुषार्थ चतुष्टय” नाम से जाना जाता है। ये चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। जीवन के दायित्व समझे, सात्विक अर्थोपार्जन करें, इच्छाओं की पूर्ति करें, मुक्त हो जाएं। प्रकृति में भी यह स्वभाव है। बसंत ऋतु सौंदर्य प्रधान ऋतु है। प्रकृति की मादकता मनुष्यों में भी दिखाई देती है बसंत यानी इच्छाओं को, कामनाओं को, सौंदर्य को इतना पूरा कर लेना कि कुछ बाकी न रहे। दिल खुश हो जाय।उल्लासपूर्वरक जीना।। बसंत को कामोत्सव भी कहते हैं। हास- परिहास के माध्यम से संबंधों में प्रगाढ़ता लाना। जटिलताओं को तोड़ना, सद्भाव को बढ़ाना, समाज में व्यवहार भेद को समाप्त कर समान रूप से जुडना यह भी इस ऋतु की विशेषता है। कामनाओं की पूर्ति को सनातन संस्कृति में तीसरे स्थान पर और मोक्ष से पहले रखा गया है। काम के कई अर्थ हैं- कर्म, सौंदर्य, यौवन, कला, मन की इच्छा आदि।
लगता है जिस अदृश्य शक्ति ने सृष्टि बनाई होगी बसंत की मादकता ने उसे भी मदमस्त किया होगा। मन के हिलोरें कैसे व्यक्त हों तो कामदेव के रूप में प्रकट होकर रुपयोंवना रति की गति जानने लगे। इसीलिए जब राग होता है तो अनुराग भी होगा। शास्त्रीय संगीत के राग में भी यही भाव है । काम मोहित दुष्यंत और शकुंतला भी कामदेव के भंवर में फंस गए थे। जयपुर के राजा जयसिंह के दरबार में बिहारी राजकवि थे। राजा का विवाह हुआ तो कामग्रस्त राजा जनकल्याण की बजाय मदनमोहन बने रहे। कई दिनों तक रनिवास से बाहर नही आये तो दरबारियों में खुसुर फुसुर होने लगी । राजा को कौन कहे? कहना मौत को न्योता देना था। तब राजकवि बिहारी में एक छंद लिख भेजा-
नही पराग नही मधुर मधु, नही विकास इह काल
अली कली ही सौं बंध्यो आगे कौन हवाल।।
राजा ने पढ़ा। पढ़कर वही समझा जो राजा के लिए था। वस्तुतः इस छंद के दो अर्थ हैं, जो जानते हैं उन्हें बताने की आवश्यकता नही जो इस पथ के राहगीर नही हैं उनके लिए टेढ़ी खीर। मोटा संदेश यह था महाराज! कब तक प्रेमपाश में बंधे रहोगे? राज्य को कौन संभालेगा?
कामदेव के 5 व्यवहार बाण- द्रवण, शोषण, तापन, मोहन और उन्माद हैं। पुष्पबाण हैं- कमल, अशोक, आम की बौर, चमेली और नीलकमल। कामदेव के अंग हैं- नयन, भौं, माथा और होंठ। गन्ने का धनुष और पुष्पों के बाण, सवारी तोता ये सब प्रतीक हैं। इनके माध्यम से कामदेव अपना कार्य करते हैं।
यह ऋतु प्रेम की ऋतु है। प्रेम का मतलब सुकोमल भावनाओं का विस्तार है न कि किसी प्रकार का वहशीपन। हीर -रांझा, बाजबहादुर-रूपमती, बिम्बसार-आम्रपाली, नल-दमयंती, दुष्यंत-शकुंतला, उर्वशी पुरुरवा, शशि-पुन्नू, सोहिनी महिवाल,, मूमल-महेंद्रा, जेठवा-उजली, राजुला-मालूशाही, राधा-कृष्ण जैसे अनेक नाम सदियों से अमर प्रेमगाथाओं की शोभा बढ़ा रहे हैं।
सनातन संस्कृति में माना गया है कि ऋतुचर्या उत्तम होनी चाहिए। न शीत, न ग्रीष्म, न वर्षा। चारों ओर पुष्पों की मादकता। मन प्रसन्न, चित्त प्रसन्न। इसलिए बसंत ऋतु को ऋतुराज कहा गया है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-मासानाम मार्गशीर्षोहम ऋतुनाम कुसुमाकर। अर्थात महीनों में मैं उत्तम माह मार्गशीर्ष हूँ और ऋतुओं में बसंत ऋतु हूँ।। जीने के लिए यह उत्तम ऋतु है। यह ऋतु काम के माध्यम से कामनाओं की पूर्ति की ऋतु है। इस ऋतु का सबसे बड़ा त्यौहार है होली।