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सार्वजनिक जीवन के वैचारिक बौने लोग


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नई दिल्ली/पार्थसारथि थपलियाल : भारत में मर्यादाओं की रक्षा समाज स्वयं करता आया है। लोक संस्कार, लोक व्यवहार, लोक अभिव्यक्ति और प्रदर्शन को लोक-मर्यादा और लोक-लाज नियंत्रित करते रहे। मर्यादाविहीन आचरण करने वाले स्वयं ही खलनायक बन जाते हैं।

लोक सेवा के नाम पर राजनीति में उतरे ऐसे अनेक लोग हैं जिन पर यह कहावत लागू होती है कि खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे। इंडिया अगेंस्ट करप्शन का बैनर उठाये लोगों का नेतृत्व करनेवाले, भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना बेचनेवाले, वयोवृद्ध गांधीवादी चिंतक अन्ना हज़ारे का दुरुपयोग, राजनीति में न आने की बच्चों की शपथ लेने वाले, 2014 से दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल के दोहरे चरित्र को आपने जान लिया होगा। भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था स्थापित करने के लिए जिस व्यक्ति ने फ्री के नाम पर राजकीय धन से पूरी जनता को ही खरीद लिया हो ऐसे व्यक्ति को क्या कहेंगे? चतुराई कितनी कि अपने पास कोई विभाग नही। भ्रष्टाचार इतना कि इनके मंत्रिमंडल के दो मंत्री विभिन्न घोटालों में तिहाड़ जेल में लंबे समय से बंद हैं।

दूसरे जिनकी समाज में चर्चा रहती है, आर्य समाज का नाम बेचकर स्वयं को हरिश्चन्द्र का आधुनिक अवतार बताने के लिए भोला चेहरा दिखाकर सहानुभूति का धंधा करनेवाले जम्मू-काश्मीर के पूर्व माननीय राज्यपाल श्री सत्यपाल मलिक हैं। जिन्हें लोक मर्यादा का बिल्कुल ध्यान नही। राज्यपाल भारतीय लोकतंत्र में एक ऐसा पद है, जिसे गैर राजनीतिक बताया जाता है लेकिन है विशुद्ध राजनीतिक। जिस तरह से इन्होंने राज्यपाल के पद को बौना बनाया वह बेमिसाल है। राज्यपाल रहते हुए किसान आंदोलन में कूदने की राजनीतिक इच्छाधारी मलिक साहब जिस तरह पदीय गोपनीयता को तार तार कर अपनी राजनीति चमकाते हैं वे एक आर्य समाजी व्यक्ति के अनुकूल नही है। वे महान होंगे लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में नही।

तीसरे व्यक्ति हैं श्री अज़ीज़ कुरेशी। राजनीतिक पृष्ठभूमि से हैं। मध्यप्रदेश में मंत्री रहे। उत्तराखंड में,मिज़ोरम में राज्यपाल रहे। घोर साम्प्रदायिक। हाल ही में इन महोदय ने अपने एक सार्वजनिक भाषण में कहा नेहरू के वारिस कांग्रेस के लोग आज धार्मिक यात्राएं निकालते हैं, गंगा मैया और नर्मदा मैया की जय बोलते हैं, ये शर्म करने और डूब मरने की बात है. उन्होंने कहा, “कांग्रेस बीच-बीच में हिंदुत्व की बात करने लगती है, जो गलत है। कांग्रेस दफ्तर में पूजा हो, मूर्तियां रखी जाए, श्री राम के नारे लगे, यह नेहरू के सपनों का मर्डर करने जैसा है।
अपने समाज को भड़काने के लिए जो कुछ कहा है उसमें और विघटनकारी समाज कंटको में बहुत अंतर नही। जो 2 करोड़ मुसलमानों को मरने के लिए उकसा रहा हो वह कैसा राजनेता।
भारतीय राजनीति में ऐसे उल्लेख भर पड़ा है।
जिन लोगों ने लोकसंस्कार, लोकव्यवहार और लोक लाज बेच खाई हो, क्या वे भारत के हितैषी हो सकते हैं? ऐसे वैचारिक बौने लोगों को इनकी जगह जनता ही दिखा सकती है, अन्यथा समाज में जिसे कुल्टा कहा जाता है राजनीति में उसकी परिभाषा सदासुहागन हो जाती है। राजनीति किसी शायर ने क्या खूब लिखा है-
सियासत नफरतों के ज़ख्म भरने ही नही देती।
जहाँ भरने पे आता है, तो मक्खी बैठ जाती है।।

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