जितेंद्र अन्थवाल
देहरादून। दुबली-पतली काया। चेहरे पर रुआब और आवाज में गर्जना…। मंच पर जब भी एंट्री होती, दर्शक तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत करते। खामोशी से लंकेश के संवाद का इंतजार करते। इक टक लगाए रावणी अट्टहास का इंतजार करते। डायलॉग गूंजते….अट्टहास गूंजता और फिर देर तक गूंजती तालियों की गड़गड़ाहट। सिटी बोर्ड (नगर निगम) ग्राउंड में दशकों यह सिलसिला चला। फिर ‘लंकेश’ पर बुजुर्गियत हावी होती है। इधर, तकनीक भी बदलती है। डायलॉग रटने के बजाय सिर्फ लिप्सिंग करने का दौर आता है। रावण की आवाज गूंजती है….कलाकार होंठ हिलाता है। फिर भी तालियां भरपूर…। हों भी क्यों न…! आखिर, रिकॉर्डेड गर्जना भी उसी लंकेश की थी, जो खुद भी कुछ साल पहले तक मंच पर उतरता था।
अभी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और मुहल्ले के हमारे अग्रज अशोक वर्मा जी ने सूचना दी कि संतराम शर्मा नहीं रहे। मुझे यह सूचना इसलिए भी ज्यादा स्तब्धकारी लगी, क्योंकि पिछले हफ्ता-दस दिन से कुछ जानकारियों के सिलसिले में अगले दो-चार रोज में शर्माजी से मिलने की सोच रहा था। लेकिन, अभी यह दुखद सूचना मिली। पुरानी दूनघाटी में म्युनिस्पैलिटी ग्राउंड की रामलीला के मंचों से दो ही ‘लंकेश’ ऐसे हुए हैं, जिनके रावणी अट्टहास ने विशिष्ट पहचान बनाई और लोकप्रियता का शिखर छुआ। पुराने लोगों के जेहन में जिनका किरदार-जिनकी डायलॉग की गर्जना आज भी गूंजती है। इनमें, एक गढ़वाली रामलीला के लंकेश गोपालराम भट्ट और दूसरे पंजाबी समाज की रामलीला के संतराम शर्मा…। संतराम शर्मा ने आदर्श रामलीला कमेटी के मंच पर न केवल 4-5 दशक रावण का पात्र जीवंत किया, अपितु उक्त कमेटी के प्रधान के तौर पर भी वर्षों से यह आयोजन कराते आ रहे थे। कांग्रेसी होकर भी सक्रिय तौर पर खुद को पिछले तीन दशक से नेहरू ब्रिगेड तक ही सीमित रखा। वर्षों तक होली की पूर्व संध्या पर वे कोतवाली के सामने मोती बाजार चौक पर राष्ट्रीय स्तर का कव्वाली मुकाबला आयोजित करवाते रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)