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सांवली सलोनी के इमोशन से खेलने वाले धंधेबाज अब न फेयर रहे न लवली


कुमार अतुल/ एक मशहूर क्रीम के नाम से फेयर शब्द हटा दिया गया है । इसे रंगभेदी पाया गया है। हर काली-सांवली छोरी को गोरी बनाने का सपना दिखा कर इस क्रीम ने फांसा और झांसा है। छोटे-छोटे गांवों में जहां बेशक आपको बरनाल न मिले लेकिन झुग्गी टाइप की दुकानों पर भी इस लवली क्रीम का पाउच जरूर मिल जाएगा। आप बेशक कहें कि नाम में क्या है, लेकिन इस टुच्ची क्रीम के नाम ने ही सबको छला है। फेयर बनने की चाह में हर बहन-भौजी ने इसे खरीदा। अम्मा-मौसी ने खरीदा। आलम यह कि महीने में जरूरी राशन की तरह घरों में फेयर बनाने वाली क्रीम की डिब्बी और पाउच आने लगे।

जरा इस कंपनी के इतिहास में चलें। हिंदुस्तान यूनिलिवर ने 1971 में इसे पेटेंट कराया था। 1975 में यह क्रीम भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, इंडोनेशिया बांग्लादेश, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, सिंगापुर और ब्रूनेई जैसे देशों के बाजारों में उतारी गई। जरा कंपनी की स्ट्रेटजी देखिए। इन एशियाई देशों की ज्यादातर महिलाएं सलोनी होने के बावजूद सांवली, थोड़ी हिम्मत करके कहें तो काली होने के कांप्लेक्स से गुजर रही थीं। जैसे ही फेयर एंड लवली नाम से क्रीम देखी उनकी बांछें खिल गईं। गोरे होने के सपने जाग उठे। बस शुरू हुई फेयर एंड लवली से लिपाई पुताई। जिसे देखो, वही क्रीम लगा कर फेयर एंड लवली होने की तमन्ना रखने लगा।

जो एंथ्रोपोलाजी (मानव शास्त्र) के बारे में जानते हैं उन्हें रेस के बारे में पता है। मूल रूप से दुनिया के लोग नार्डिक, मंगोलायड, प्रोटो आस्ट्रेलियाइड, निग्रेटो रेस के हैं। नार्डिक लोग गोरे-चिट्टे, नीली आंखों वाले, लंबे-चौड़े होते हैं। ईरानी, मिश्री, जर्मन मूल और यूरोप के ज्यादातर लोग नार्डिक होते हैं। कुछ लोग इन्हें सीधे आर्य से भी जोड़ देते हैं। मंगोलायड लोग चौड़ा माथा, छोटी नाक, तांबई रंग वाले होते हैं। निग्रेटो लोग काले, घुंघराले बाल वाले होते हैं। अफ्रीका के लोग इसी रेस के हैं। एक बात समझ लें कि मौजूदा समय में कोई भी प्योर रेस का दावा नहीं कर सकता। ज्यादातर लोग मिश्रित हैं। शरीर की बनावट, काया का रंग और कई आनुवांशिक आदतें रेस तय करता है।

जिन देशों में फेयर एंड लवली ने अपना बाजार ढूंढा वे कमोबेश कभी न कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे। काले-सांवले रंग को लेकर इन देशों के लोगों में खासतौर पर महिलाओं में कुंठा भी पनपती रही है। जब कि भारतीय संस्कृति सांवली-सलोनी के इर्द-गिर्द घूमती रही है। सौंदर्य के मानक भी यहां भिन्न थे। काले-सांवले रंग को लेकर यहां के लोगों को कभी कांप्लेक्स नहीं रहा। यहां के तो सबसे बड़े आराध्य राम और कृष्ण दोनों ही सांवरे हैं। दोनों सौंदर्य के प्रतिमान हैं। राम सांवरे हैं लेकिन उनका सौंदर्य… कंदर्प अगणित अमित छवि जैसा है। अपना कान्हां तो है ही सांवरा, लेकिन सबसे सम्मोहक और चुंबकीय छवि का स्वामी है। कोई उसके सम्मोहन से बच नहीं सकता।

स्त्रियां भी विदुषी हैं, आत्मविश्वासी हैं लेकिन राधा को छोड़कर शायद ही किसी को गोरे होने का गुमान है। पांचाली द्रौपदी खुद सांवली थी लेकिन अनुपम सुंदरी थी। 1975 के पहले तो साहिर ने भी लिखा- कहीं एक मासूम नाजुक सी लड़की, बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी। नायिका सांवली होने के बाद भी बहुत खूबसूरत हो सकती थी….लेकिन इस लवली क्रीम ने सब कबाड़ा कर दिया। सारे सौंदर्य प्रतिमानों पर पानी फेर दिया। हर कोई लीपापोती में जुट गया। और तो और आबनूसी कलर के पुरुषगण भी घर की महिलाओं से छुपकर उनकी फेयर एंड लवली आजमाने लगे। क्रीम ने सपने दिखाए और बेचे।

45 बरस में क्रीम ने अरबों-खरबों का कारोबार कर लिया। लेकिन अब उसके दिन लद गए हैं। फेयर बनाने के दावे को अब वर्णभेदपूर्ण मान लिया गया है। फेयर एंड लवली नाम से 45 साल बाद फेयर हट गया है । यही नहीं लोरियाल और अन्य सौंदर्य प्रसाधन कंपनियों ने भी अपने उत्पादों से फेयरनेस बढ़ाने का दावा वापस ले लिया है । शायद अब काले होने की कुंठा में किसी फेयरनेस क्रीम की लीपापोती की होड़ खत्म होगी। सांवलें हों, काले हों तो गम न कीजिए। पूरे आत्मविश्वास के साथ कहिए ..हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं।
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© कुमार अतुल
kumaratulwww@gmail.com

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