• Tue. Dec 2nd, 2025

कौन जीता है तेरे फैसला होने तक


[responsivevoice_button voice=”Hindi Female”]

Spread the love

☞पार्थसारथि थपलियाल

हमारे गाँव में पहले तो विवाद होते ही नही थे होते भी थे तो मिल बैठकर सुलझा लिए जाते थे। मुंशी प्रेम चंद की कहानी “पंच परमेश्वर” की तरह। सच कहूँ गांव की चौपाल में जो फैसले हो जाया करते थे वे फैसले कोर्ट ऑफ जुडिकेटर में नही होते।
न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यहां न्याय की देवी तराजू के साथ खड़ी है, आंखों में पट्टी बंधी है। उद्देश्य था कि बिना भेद भाव के न्याय हो।
जिन मामलों को तहसीलदार लेवल पर हल किया जा सकता है, उनमें सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान लेकर न्यायिक सक्रियता दिखाती है, लेकिन जिन मामलों को कोर्ट में हल किया जाना चाहिए उन पर डेट पर डेट बढ़ती जाती हैं। नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध को न्यायपालिका ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताया, दिल्ली में किसान आंदोलन, और पूर्व वर्षों में जम्मू कश्मीर में सेना में ड्यूटी करते जवानों पर पथराव के विरोध में सैन्य कार्यवाही को मानव अधिकारों का उल्लंघन बताया। यहां तक कि सी ए ए मामले में और किसान आंदोलन में कार्यपालिका ने स्वयं प्रशासनिक सक्रियता दिखाई उसका परिणाम क्या हुआ। दोनों मामलों में निःशब्दता के अलावा कुछ भी नही था। गत वर्ष 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस के दिन लोग लाल किले पर तिरंगे के स्थान पर अपना झंडा लहरा रहे थे, कोर्ट इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानता है, जे एन यू में भारत विरोधी नारे लगे, -वह संविधान प्रदत अभिव्यक्ति का अधिकार है। हैदराबाद में कुछ वर्ष पूर्व “100 करोड़ हिंदुओं को तबाह कर देंगे” का नारा भी हो सकता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो!

अपने परिवार का पालन पोषण के लिए ठेले पर समान बेचने वाले की पेट की अभिव्यक्ति की बात न्यायालय की समझ में क्यों नही आती कि घूसखोरी और हफ्ता वसूली वाला पुलिस का आदमी अपना फैसला लठ्ठ बजा कर वहीं पर क्यों सुना देता है। कभी इस न्यायपालिका ने इस बात पर संज्ञान क्यों नही लिया कि वकीलों की फीस भी निर्धारित होनी चाहिए?
यह भी वेदांत दर्शन की तरह है “ब्रह्म सत्यम जगनमिथ्या”।।

न्याय की सांस न्यायपालिका की देहरी तक पहुंचते पहुंचते दम तोड़ चुकी होती है। भारत मे न्याय साक्ष्य पर आधारित होता है। दबंग लोग पुलिस के साथ सांठगांठ कर साक्ष्य प्रस्तुत नही होने देते। दबंग जीत जाते हैं। फैसला हो जाता है, न्याय नही हो पाता। जैसा ओडिशा के सिंधु प्रधान के साथ हुआ जिसे लगभग 20 वर्षों तक जेल में बंद रखने के बाद साक्ष्यों के अभाव में जेल से ससम्मान रिहा किया गया। क्या न्यायपालिका सिंधु के 20 वर्ष लौटा सकती है? उज़के जीवन के आनंद की भरपाई कौन करेगा? क्या उसकी मान प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना कर सकती है। क्या न्यायपालिका को उत्तरदायी नही होना चाहिए।
क्या यह अभिव्यक्ति संविधान के अनुच्छेद 19 (1) ही है?

मिर्ज़ा ग़ालिब क्या खूब कह गए-

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।।

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

नॉर्दर्न रिपोर्टर के लिए आवश्यकता है पूरे भारत के सभी जिलो से अनुभवी ब्यूरो चीफ, पत्रकार, कैमरामैन, विज्ञापन प्रतिनिधि की। आप संपर्क करे मो० न०:-7017605343,9837885385