☞पार्थसारथि थपलियाल
गोस्वामी तुलसीदास जी ने अयोध्याकांड में एक दोहा लिखा-
मुखिआ मुखु सों चाहिए खान पान को एक
पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।।
भूतपूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी राजधर्म के संदर्भ में अक्सर इस दोहे का उपयोग करते थे। इसीलिए भारत में राजनीति में राजा के आचरण का पैमाना राजधर्म होता था। राजा अपने राज्य का सर्वशक्तिमान व्यक्ति होता था। राजा को विष्णु स्वरूप माना जाता था। मुकुट उज़के राज्य द्वारा दिया गया राज करने का अधिकार पत्र था कि वह प्रजा का पालक है, वह सर्वे सर्वा है। साथ ही राजा के हाथ मे एक दंड भी पकड़ाया जाता था जो शासन में दुष्टों को दंड देने के प्रतीक था। राजगुरु या राजपुरोहित स्वस्ति वाचं के साथ राजा की पीठ पर मोर पंख से मरते हुए कहता था- धर्मदण्डवती भव:। अर्थात राजन! आप राजा हैं, लेकिन निरंकुश नही हो सकते आप के ऊपर धर्म का दंड है।
धर्म वही जो श्रेष्ठ आचरण हो। लोक कल्याणकारी हो।
आधुनिक भारत की कल्पना लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में की गई थी। आधुनिक राजनीति ने कल्याणकारी शब्द को लोकतंत्र का सर्वोत्तम गुण बनाया। लोक की जगह राज नेता अपने अपने कल्याण में घुन की तरह लगे हुए हैं।
राजनीतिक दलों की भी कोई विचारधारा रही नही। हाल के वर्षों में राज करने के लिए गिरोह बनते चले जा रहे हैं। इसे संविधान प्रदत्त अधिकार बताते हैं। राजनीति अब ठेकेदारी की तरह हो गई है। ए केटेगरी के ठेकेदार वे हैं जिन्होंने गिरोह बनाकर एक परिवार को गिरोह का सरदार बना दिया है। अरबों रुपये की संपत्ति बनाने वाले ये तथाकथित नेता लोग सोचते हैं कि उन्हें जनता ने राजा बनाया है। वे जो चाहे वो करें। लोकतंत्र की पहली शर्त लोकलाज मानी जाती है, आजके दौर में 80 प्रतिशत लोग लोकलाज को ठिकाना लगाकर राजनीति में आते हैं।
धर्मवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, टिकट खरीदना, बेचना और अनैतिक धंधे किये बिना अधिकतर लोग चुनाव नही जीत सकते। पार्टी का टिकट 10-20 करोड़ में खरीदने का मतलब वह कंडिडेट सत्ता में आते ही पैसे की उगाही कर अपनी भरपाई करेगा। महाराष्ट्र में तत्कालीन गृहमंत्री ने जब एक पुलिस इंस्पेक्टर को सौ करोड़ महीने लाने का टारगेट रखा तो वह इंस्पेक्टर आका का हुक्म बजाने में लग गया। संविधान के नाम की फर्जी शपथ लेने वाले नेता सत्य, निष्ठा और गोपनीयता शब्दों का खुले आम उल्लंघन करते हैं उन पर कार्यवाही नही जोती। हरियाणा में एक दौर में लालों के लाल थे, तब आया राम गया राम की सरकार होती थी। महाराष्ट्र में दो साल पहले शिवसेना ने नैन मटकी तो की थी भाजपा से लेकिन विवाह के फेरे लिए एनसीपी/ कोंग्रेस के साथ।
देवेंद्र फड़णवीस ने पौ फटने से पहले अजीत पवार के साथ संवैधानिक औपचारिकता शपथ लेकर की जो दो दिन भी चल नही पाई। दिल्ली में जो पार्टी राज कर रही है वह पूरे देश में फ्रीवादी बन गई। इंडिया अगेंस्ट करप्शन से उपजे पौधे भ्रष्टाचार की अमरबेल बन गए। जो लोग मुन्नी को बदनाम बताते थे वे मुन्नी की चुन्नी थामे सजदे में हैं। हद तो उत्तर प्रदेश में हुई चुनाव घोषणा तक तो सरकार बहुत अच्छी बताने वाले दलबदलू जब बेटे के लिए सीट का जुगाड़ नही कर पाए तो दलितों ओर पिछड़ों के नाम की दुहाई देकर दूसरे दल से इश्क लड़ाने लगे और अपने परिवार का भविष्य सुरक्षित किये। तीन महीने तक खानदानी राजनीति के शिरोमणि से पेंगे बढ़ाने वाले उत्तराखंड के राजनीतिक चरित्र का राज विलाप सब ने देखा है। कल तक जिसका विरोध कर रहे थे आज उसी की चरण वंदना करते हो, इसी को राजनीति कहते हो, यह बड़ी विचित्र परिभाषा है।
लोकतंत्र में राजनीति गिरोहबाज़ी नही होनी चाहिए, विचारधारा की राजनीति होनी चाहिए। नेताओं के शब्दों में दम हो सच्चाई हो।
यह विचित्र बात है कि एक सरकारी नौकर नियुक्त करने से पहले चयनित व्यक्ति का वेरीफिकेशन होता है। राजनीति में जाने वाले लोगों का आचरण और पृष्ठभूमि का गंभीरता से वेरिफिकेशन क्यों नही होता। क्यों नही राजनीति के लोगों पर इंटेलिजेंस की निगाह होती कि वे किस किस तरह के गठजोड़ और अनैतिक व्यवहारों में लगे हैं। कौन कौन लोग और विचारधाराएं स्वतंत्रता शब्द को राष्ट्र के विरुद्ध हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं? उन पर निरोधक कार्यवाही भी कारगर हो। सच बात तो यह है राजनीति धंधा बनती जा रही है। समाज भी वैसे ही बन रहा है। पूरा सिस्टम संवैधानिक औपचारिक्ताओं से चल रहा है। नही चल रहा है तो लोकतंत्र का राजधर्म।
गीता के तीसरे अध्याय का 21वां श्लोक राजनीति करनेवालों को कंठस्थ होना चाहिए-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः !
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते !!
अर्थात श्रेष्ठ पुरुष जैसा-जैसा आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही करते हैं ! वे जो आदर्श प्रस्तुत करते हैं, समस्त मनुष्य उसी का अनुगमन करने लगते हैं।।