✍🏿पार्थसारथि थपलियाल
भारतीय जीवन में बारामासा गीतों का खूब प्रचलन रहा। इन गीतों में लोकभावनाएँ निहित रही हैं। हमारी लोक भाषाओं में सावन माह की स्थितियों पर गीत सर्वत्र पाए जाते हैं। सावन तपती गर्मी से राहत दिलाता महीना है। सावन और भादों दो महीने मिलाकर वर्षा ऋतु बनती है। वर्षा ऋतु के कई पक्ष हैं। किसी के लिए यह ऋतु वाह सावन बनकर आती है और किसी के लिए हाय सावन। पहाड़ों में चट्टानों के खिसकना, मिट्टी का दरकना, नदी नालों का बढ़ना, बादल फटना और मैदानों में अति वृष्टि से बाढ़ आ जाना, मकानों और जानवरों का बह जाना, फसलों को नुकसान होना आदि आदि। इस सब के बाद भी जब कोई गीत सुनाई देता है कि मेरे देश मे पवन चले पुरबाई मेरे देश मे…या मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरा मोती… संघर्षों के बीच जीने की कला भारतीय किसान खूब जानते हैं। सावन में फसलों की निराई गुड़ाई ठीक होगी तभी तो फसल लह लहायेगी।
हिंदी फिल्मी गीतों में सावन पर के गाने हैं, जो मौसम देखते ही बरबस जुबाँ पर आ जाते हैं। जीवन प्रकृति के सहचर्य में जीने का नाम है ऑन लाइन जीने वालों का जीवन सदैव ओंन लाइन ही रहता है। प्रकृति के साथ जीने वालों के पास किताबी ज्ञान की बजाय प्रकृति का ज्ञान होता है। यह प्रकृति ही है जो सुख और दुख की सहज अनुभूति करती है। आइए सावन का लुत्फ उठाएं। सावन की हवाएं जब शोर मचाती हैं तो कवि हृदय गा उठता है-
सावन का महीना, पवन करे सोर
सावन का महीना, पवन करे सोर
हम्म पवन करे सोर, पवन करे शोर
अरे बाबा शोर नहीं सोर, सोर, सोर
पवन करे सोर
हां, जियरा रे झूमे ऐसे, जैसे बनमा नाचे मोर
सावन का महीना, पवन करे सोर
जियरा रे झूमे ऐसे, जैसे बनमा नाचे मोर..….(फ़िल्म- मिलन),
कजरा और गजरा सौंदर्य को बढ़ाने वाले हैं- कहां से आये बदरा घुलता जाए कजरा….(चश्मे बद्दूर। )
सावन की फुहारें, मन की बहारें टैब और भी खुशियां लेकर आती हैं जब सावन आता है झुमके-
बदरा हाय बदरा छाये की झूले पड़ गए हाय
की मेले लग गए मच गयी धुम रे
की आया सावन हो झूम के
आया सावन हो झूम के
मौसम बदराया हो तो भला सावन में पेड़ों पर लटके झूले कौन नही झूलना चाहेगा- सावन के झूले पड़े हैं, तुम चले आओ…। सावन के झूले पड़े,
तुम चले आओ, तुम चले आओ
तुम चले आओ, तुम चले आओ
आँचल ना छोड़े मेरा, पागल हुई हैं पवन पवन
आँचल ना छोड़े मेरा, पागल हुई हैं पवन
आ अब क्या करूँ में जतन, धड़के जिया जैसे,
पंछी उड़े हाँ, सावन के झूले पड़े
वे लोग बैठकों में रखे गुलदानों में सजे प्लास्टिक के फूल हैं जिनमें जीवन की महक नही है। जीवन न फाइलों में है न पदों के मद में.. जीवन प्रकृति के सौंदर्य में है। फ़िल्म मंज़िल का ये गीत- रिमझिम गिरे सावन, सुलग-सुलग जाए मन
भीगे आज इस मौसम में, लगी कैसी ये अगन
रिमझिम गिरे सावन…
जिनके सजन अपने पास नही हैं अगन तो उनकी भी है-
अब के सजन सावन में -२, आग लगेगी बदन में
घटा बरसेगी नज़र तरसेगी मगर,
मिल न सकेंगे दो मन एक ही आँगन में (फ़िल्म-चुपके चुपके)
बरसात यूं तो बादलों से ही बरसती है लेकिन जब यादों की बरसात आ जाय तो-
रिम झिम के तराने लेके आयी बरसात
याद आये किसीसे वो पहेली मुलाक़ात
रिम झिम के तराने लेके आयी बरसात
याद आये किसीसे वो पहेली मुलाक़ात
रिम झिम के तराने लेके आयी बरसात..(फ़िल्म काला बाज़ार)
कहते हैं कि कुछ तो मजबूरियां रही होंगी
यूं ही कोई बेवफ़ा नही होता।
रोटी, कपड़ा और मकान फ़िल्म के इस गीत में जीवन का मर्म छुपा है-
अरे हाय हाय ये मज़बूरी, ये मौसम और ये दूरी
मुझे पल पल है तड़पाये, तेरी दो टकिया दी नौकरी में
मेरा लाखों का सावन जाये…हाय हाय ये मजबूरी…
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से गुजरना है किस छत को भिगोना है।।
बरसाना तरसाना बादलों की प्रकृति है। हंसना हंसाना, रोना रुलाना आदमी की प्रवृति। इसी प्रवृति ने यादों को संजोया है-
लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है
वही आग सीने में फिर जल पड़ी है
कुछ ऐसे ही दिन थे वो जब हम मिले थे
चमन में नहीं फूल दिल में खिले थे
वही तो है मौसम मगर रुत नहीं वो
मेरे साथ बरसात भी रो पड़ी है… (फ़िल्म-चांदनी)
सावन पर बहुत से गाने है जो जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। सावन पर वे कौन से गाने हैं जो आपको पसंद हैं, बताएंगे?