उत्तराखंड वासियों के लिए खुश खबरी है। राज्य में निर्मित दन (कालीन) को अब जीआई टैग (ज्योग्राफिक इन्डिकेशन) मिल गया है। जिसके बाद राज्य के इस हस्तशिल्प को वैश्विक पहचान मिलने की आस जग गई है। विशेषतौर पर भोटिया जनजाति की ओर से भेड़ की ऊन से बने दन की देश के विभिन्न हिस्सों में अच्छी मांग है। जीआई टैग मिलने के बाद इसे विदेशों में भी बाजार उपलब्ध हो सकेगा।
बता दें कि राज्य के चमोली, पिथैरागढ़, उत्तराकाशी और बागेश्वर में दशकों से भोटिया जनजाति के लोगों द्वारा दन बनाये जाते हैं। इन सीमांत क्षे़त्रों में निवास करने वाली भोटिया जनजाती वर्षों से हिमालीय जड़ी-बूटियों के साथ ही ऊनी वस्त्रों का निर्माण और विपणन कर आजीविका चलाते हैं। ऐसे में उत्तराखंड के सीमांत जिलों में रहने वाली भोटिया जनजाति के लोग भेड़ की ऊन की रंगाई कर आकर्षक डिजाइनों वाले मोटे कालीन का निर्माण किया जाता है। जिसे स्थानीय आम बोलचाल में दन कहा जाता है।
दन का उपयोग उत्तराखण्ड में शुभ कार्य, पूजा और विभिन्न आयोजनों के साथ ही बैठकों में जमीन पर बिछाने के लिये किया जाता है। जिसके बीती 14 सितम्बर को भारत सरकार के रजिस्ट्रार ज्योग्राफिक इन्डिकेशन की ओर से जीआई टैग प्रदान कर विशिष्ट पहचान प्रदान की गई है। जिससे राज्य में दन निर्माण से हस्तशिल्प व्यवसाय में स्वरोजगार की संभावनाएं बढ गई हैं।
चमोली के इन स्थानों पर बनते हैं भोटिया दन :-
चमोली के तपोवन, रैणी, लाता, भल्लगांव, सुराईठोटा, सूगी, मेहरगांव, झेलम, द्रोणागिरी, गरपक, मलारी, कैलाशपुर, गमशाली, बांपा, फरकिया, नीती, माणा, पैनी, बिरही, छिनका, घिंघराण, कौडिया, भीमतल्ला, नंद्रप्रयाग, मंगरोली, गडोरा, अगथला सहित कई गांवों में दन (कालीन), शॉल, पंखी, आसन, मफलर, टोपी, कुशन, दोखा जैसे आकर्षक हस्तशिल्प ऊनी साजो-सामान तैयार किया जाता है।
क्या होता है जीआई टैग :-
जीआई टैग यानि जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग। ये एक प्रकार का लेबल होता है। जिसमें किसी प्रोडक्ट को विशेष भौगोलिक पहचान दी जाती है। ऐसा प्रोडक्ट जिसकी विशेषता या फिर नाम खास तौर से प्रकृति और मानवीय कारकों पर निर्भर करती है।