• Thu. May 16th, 2024

आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः आइए जानते हैं सनातन धर्म क्या है


✍️पार्थसारथि थपलियाल

सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका प्रवर्तक व्यक्ति विशेष नही है। यह धर्म सदविचारों का व्यवहारिक रूप है जिनके बारे में ऋग्वेद में कहा गया है-“आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः” अर्थात “विश्व मे जहॉं भी अच्छे विचार है वे हम तक आएं”। प्रत्येक जीव में वास्तु में ईश्वर को देखें। किसी का दिल दुखाना, किसी को सतना, किसी के अधिकार का अतिक्रमण करना, किसी को धोखा देना तो अच्छे विचार और कार्य नही हो सकते। गोस्वामी तुलसी दास जी ने कहा है-परहित सरिस धर्म नही भाई। पर पीड़ा सम नही अधमायी।।

महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद युधिष्ठिर शर शय्या पर लेटे भीष्म पितामह के पास शिक्षा लेने गए। उन्होंने पितामह से पूछा धर्म क्या है? तब भीष्म ने कहा-
धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः।
यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।।
अर्थात्—‘जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे ‘‘धर्म’’ कहते हैं। ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को एक सूत्र में बाँध देने की ताकत है, वह निश्चय ही धर्म है।’ धर्म और मजहब में प्रमुख भेद यह होता है कि धर्म स्वाभाविक गुण होता है जो सर्वोच्च मानवीय चिंतन में से निकला हुआ अमृत होता है जो सनातन (सृष्टि के आदिकाल से) विद्यमान है। जबकि मजहब किसी प्रवर्तक द्वारा स्थापित नियमों का अनुकरण करता है।

सनातन धर्म ईश्वरीय ज्ञान पर आधारित है जो प्राचीन ऋषियों (मंत्रदृष्टाओं) को ध्यानावस्थित अवस्था मे प्राप्त हुआ और वेदों में श्रुति परंपरा से संरक्षित है। सनातन धर्म में जो धर्माचरण अपनाए जाते हैं वे थोपे हुए नही हैं, ग्रहण किये हुए हैं। इन आचरणों और कर्तव्यों की विविध परिभाषाएं हैं। ईश्वर के प्रति आस्था जिसे “ईश्वर प्रणिधान” अर्थात ईश्वर को समर्पित होना। सब में ईश्वर का अंश मानना। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं-
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
अर्थात जो मनुष्य सर्वत्र (हर वस्तु में) मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता॥

ईश्वर आदि और अंत से रहित है। वह अजन्मा, निराकार और निर्विकार है। उसी के बारे में कहा गया है “एकम सद विप्र: बहुधा वदन्ति”। अर्थात सत्य एक ही है लोग उसे अनेक नामों से पुकारते हैं या कहते हैं। सनातन धर्म श्रेष्ठ आचरण को ही मान्यता देता है। इसीलिए मानवोचित गुणों यथा- सत्य, अहिंसा, क्षमा, त्याग, दया, करुणा, इंद्रियों का दमन, संतोष, स्वच्छता (मन, वचन और कर्म से) कर्म प्रधानता, सदाचार, क्रोध रहित आचार-व्यवहार को विभिन्न शास्त्रों में धर्म के लक्षण के रूप में बताया गया है।

आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च।
तस्मादस्मिन्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः।।
वेदों और स्मृतियों में भी बताया हुआ आचरण ही परम धर्म है वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है, इसीलिए आत्मवान द्विज को चाहिए कि वह श्रेष्ठ आचरण में सदा निरन्तर प्रयत्नशील रहे। वहीं महाभारत में अहिंसा को परम धर्म कहा गया है। साथ ही धर्म की रक्षा के लिए हिंसा को भी उचित माना गया है।

अहिंसा परमो धर्म: धर्म हिंसा तथैव च।।
धर्म की रक्षा अवश्य की जानी चाहिए। इसलिए कहा गया है-
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।
अर्थात जो धर्म का नाश करता है, उसका नाश धर्म स्वयं कर देता है, जो धर्म और धर्म पर चलने वालों की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा अपनी प्रकृति की शक्ति से करता है। अत: धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
नॉर्दर्न रिपोर्टर के लिए आवश्यकता है पूरे भारत के सभी जिलो से अनुभवी ब्यूरो चीफ, पत्रकार, कैमरामैन, विज्ञापन प्रतिनिधि की। आप संपर्क करे मो० न०:-7017605343,9837885385