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✍🏿पार्थसारथि थपलियाल
प्राणप्रतिष्ठा शब्द पूर्व में इतना चर्चित नही रहा जितना अयोध्या में श्रीराम मंदिर में श्री रामचन्द्र भगवान की प्रतिमा को प्रतिस्थापित किये जाने के प्रसंग में। यह चर्चा शायद तब न होती जब प्रश्न उठाने वालों ने धर्मनिर्पेक्षता के चश्में न लगाए होते और यह भी कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सनातनियों छला न गया होता। कौमनष्टको (वामपंथियों) और धूर्त पेरियार वंशजों ने पिछले समय में प्राणप्रतिष्ठा और सनातन पर जो प्रहार किए हैं उसने यह सोचने और लिखने पर विवश कर दिया कि सामान्य भारतीयों को सरलता से यह जानकारी भी उपलब्ध नही होती कि क्या होती है प्राणप्रतिष्ठा? एक टी. वी. बहस में एक मूर्ख और एक धूर्त अपने अपने ढंग से ज्ञान बखार रहे थे। धूर्त ने कहा अगर तुम्हारे भगवान की मूर्ति में प्राण है तो वह बाढ़ आने पर अपनी रक्षा क्यों नही करती?

भारत में प्राचीन काल में ऋषि मुनि जंगलों में रहते, तपस्या करते, यज्ञ करते और जंगलों में कुटी बनाकर रहते थे उसे अरण्य संस्कृति कहते थे। जैसे कि वेद वचन है-एकोहम द्वितीयो नास्ति अर्थात (ईश्वर कहता है) मैं एक हूँ दो नही। ईशावास्य उपनिषद में लिखा है- ईशावास्य मिदं सर्वं यदकिंचित जगत्याम जगत.. ईश्वर जगत में सर्वत्र विद्यमान है। इसी कारण विद्वान लोगों ने उस ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा। एक: सद विप्र: बहुधा वदन्ति। अर्थात उस एक सत्य (ईश्वर) को लोग अनेक नामों से बताते हैं। मन की चंचलता और उसे स्थिर करने के उद्देश्य से प्रतिमा या मूर्ति की आवश्यकता हुई। , eeसंकल्प से सिद्धि का मार्ग समझने योग्य है, जब हम एक निश्चित धारणा के साथ काम पर लग जाते हैं तब सफलता के द्वार स्वतः खुलते हैं। वाल्मीकि जी ने राम का नाम उल्टा जपा, म रा, म रा बोलते बोलते राम राम हो गया। रत्नाकर वाल्मीकि बन गए।

मत्स्य पुराण, वामन पुराण, नारद पुराण तथा दैनिक पूजा विधान की पुस्तक कर्मकांड में मंदिरों में प्राणप्रतिष्ठा संबंधी विवरण और पद्धयति उपलब्ध हैं जिनसे इसका विधान ज्ञात होता है। जब तक किसी मंदिर में स्थापित की जाने वाली प्रतिमा का प्राणप्रतिष्ठा संस्कार नही किया जाता तब तक वह प्रतिमा पूजनीय नही होती। इसलिए मंदिरों में स्थापित प्रतिमाओं का शास्त्रोक्त विधि से प्राणप्रतिष्ठा करना अनिवार्य है। प्राणप्रतिष्ठा अनुष्ठान का आरंभ प्रायश्चित और कर्मकुटी से होता है। प्राणप्रतिष्ठा अनुष्ठान में यजमान की भूमिका निभाने वाले होते हैं उन्हें अपने पाप कर्मों की स्वीकारोक्ति के साथ क्षमायाचना करनी होती है। विभिन्न मटकों में रखे विविध नदियों, सरोवरों, कुंडों, कुओं के जल से यजमान व उपस्थित सभी लोगों को मंत्रोच्चार के साथ अभिषेक किया जाता है। यज्ञ के लिए मंगाई गई विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों, समिधाओं और उपयुक्त हवन सामग्री के साथ यह कार्य प्रकांड विद्वान पंडितों के माध्यम से किया जाता है। अनुष्ठान के क्रम में वास्तु पूजा की जाती है।

स्थापित की जाने वाली प्रतिमा की शोभायात्रा निकाली जाती है। इसके बाद विभिन्न अधिवास कराए जाते हैं। अधिवास से आशय है की उस प्रतिमा को विविध पदार्थो या वस्तुओं के साथ रखना या रहना। पुराणों में 12 प्रकार के अधिवास बताए गए हैं। इन अधिवासों को इन नामों से जाना जाता है-जलाधिवास, दुग्ध/घृताधिवास, धान्य अधिवास, शरकरा/मिष्ठान अधिवास, रत्नाधिवास औषधि अधिवास, केसराधिवास,फलाधिवास, पुष्पाधिवास, मध्यदिवसाधिवास, सायंकाल एवं शय्याधीवास। कई पंडित मंदिरों में प्राणप्रतिष्ठा के लिए पांच या सात अधिवास करवाते हैं।

अधिवासपूर्ण होने के बाद प्रतिमा को मंदिर के गर्भगृह में रख दिया जाता है। गर्भगृह के द्वार पर पर्दा लगा दिया जाता है। पूजा कार्य से जुड़े कुछ दीक्षित व्यक्ति स्नान करवाने के लिए गर्भगृह में होते हैं जो आचार्यों के निर्देशन में कार्य करते हैं। यहां प्रतिमा को दस स्नान करवाये जाते हैं इनमें चार स्नान- भस्म, मिट्टी गोबर और गोमूत्र से कराए जाते हैं। छः स्नान दूध, दही, घी, शहद, सर्वोषधि और कुशोदक से किया जाता है। अंत में गंगाजल से स्नान कराया जाता है। स्नान के बाद किसी मुलायम वस्त्र से प्रतिमा को सुखा दिया जाता है। जप में महामृत्युंजय मंत्र का जाप किया जाता है।

प्राण प्रतिष्ठापित करने से पूर्व प्रतिमा को नववस्त्र धारण करवाये जाते हैं व अलंकरण किया जाता है। प्रतिमा की आंखों पर पट्टी लगा दी जाती है। प्राण आह्वान के वैदिक मंत्रोच्चार किया जाता है। प्रतिमा का अंगन्यास करवाया जाता है। प्राणशक्ति का आह्वान मंत्र उच्चारित किये जाते हैं। सभी श्रद्धालु हाथ जोड़कर ईश्वर की आराधना करते हैं। सभी तरह की पूजाएँ पूरी होने पर अनुष्ठान में उपस्थित सभी लोग अपनी हथेलियों को प्रतिमा की ओर करते है। पंडित प्राण स्थिर करने के मंत्र पढ़ते हैं। अन्य लोग हाथ जोड़े रखते हैं। साथ में पुजारी प्रतिमा के पीछे खड़े होकर प्रतिमा की आंखों में काजल भी करते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि विग्रह से निकलने वाली ऊर्जा का प्रभाव उस व्यक्ति पर न पड़े। अब तक जिसे प्रतिमा कह रहे थे वह प्राण प्रतिष्ठा के बाद आराध्य का विग्रह हो जाती है।

इस विग्रह की आंख पर लगी पट्टी खोलने का काम किया जाता है विग्रह के सामने एक दर्पण दिखाया जाता है। पट्टी हटते ही विग्रह का प्रतिबिंब दर्पण पर पड़ता है। अनुभव में यह आया है कि दर्पण का कांच चटख जाता है। लोग जयकारा लगाते हैं। इस प्रकार एक प्रतिमा में प्राण (ऊर्जा) स्थापित किये जाते हैं।
परंपरा में यह देखा गया है कि इसके बाद षोडशोपचार पूजा की जाती है। अंत में आराध्य की आरती की जाती है। सभी श्रद्धालु भगवान के दर्शन करते हैं और नमस्कार, दंडवत प्रणाम करते है। चरणामृत और यज्ञ प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसे प्राणप्रतिष्ठा संस्कार कहते हैं।

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